पंडित दीनदयाल उपाध्याय भरतीय राष्ट्रीय जीवन के प्रेरणामूर्ति है
अशोक कुमार
प्रधान संपादक हूल एक्सप्रेस
पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राष्ट्रीय जीवन के प्रेरणामूर्ति है, आचार्य चाणक्य के बाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने भारत के सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए संस्कृतिनिष्ट एकात्म राष्ट्र का विचार दिया है, उनका उद्देश्य स्वाधीन भारत के पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व - दृष्टि प्रदान करना था,
उनका राजनैतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है, उनके शब्दों में :-
" भारत के रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मनव समूह एक जन है, उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारती संस्कृति है, इस लिए भारत राष्ट्रवाद का अधार यह संस्कृति है, इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा "
संस्कृति, किसी भी वर्ग, समाज, राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन, आचार, विचार कला - कौशल और सभ्यता की सूचक होती है, दुसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है,
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के आर्थिक नीति का रचनाकार है, उन्होंने एकात्म मानव विचार पर तत्व दृष्टि प्रदान करते हुए कहा था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य समाज के अन्तिम पायदान पर खड़े सामान्य मानव का सुख है,
एकात्म मानववाद एक ऐसी धारना है, जो चक्राकार, मण्डला अकृति द्वारा स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है, जिसके केन्द्र में व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा समाज, वर्ग, जाती, फिर राष्ट्र, विश्व और अंनत ब्रम्हांड को अपने में समाविष्ट किये है, इस अखण्ड मण्डलाकार आकृति में एक धाप से दुसरे फिर दुसरे धाप से तीसरे का विकास होता जाता हैं, अपना अस्तित्व साधते हुए सभी एक दूसरे से जुड़कर एक दूसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी हैं, इनमें कोई संघर्ष नहीं है,
एकात्म मानव वाद में सम्पूर्ण समाज के सृष्टि के साथ व्यक्ति का एकात्मता का भी विचार किया गया है, समान्यतः व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है, शारीरिक सुख को ही सुख समझते हैं, किन्तु मन में चिंता रहा तो शारीर सुखी नहीं रहा, इसी प्रकार वुद्धि का भी सुख है, बड़े प्रेम भाव से खाने - पीने मिल रहा है, यदि दिमाग में कोई उलझन है, तो पागलों जैसा हालत हो जाती है, पागल को सारे सुख - सुविधा मिलने पर भी दिमाग के लक्षण के कारण वुद्धि का सुख प्राप्त नहीं होता है, मनुष्य , मन, वुद्धि, आत्मा, और शरीर इन चारों का समुच्चय है, इसे टुकड़ों में बाट कर एक - एक हिस्से पर विचार नहीं किया जा सकता है,
एकात्म मानववाद, मानव जीवन व सम्पूर्ण ब्रम्हांड के एकमात्र सम्बन्ध दर्शन है, इसका वैज्ञानिक विवेचना पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने सन् 1965 में 22 से 25 अप्रैल को मुम्बई विजयवाड़ा में जनसंघ के अधिवेशन में अपने दिये गये चार व्याख्यानों के रूप में प्रस्तुत किया था, इस अधिवेशन में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने एक साथ करतल ध्वनि से स्वीकार किया था, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के राष्ट्र पुनर्रचना के तत्व दृष्टि का की तुलना साम्यवाद, समाजवाद, पुंजीवाद से नहीं की जा सकती, एकात्म मानव दर्शन को किसी वाद के रूप में देखना भी नहीं चाहिए,
प्रजातंत्र के विचारकों का कहना है, कि मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है, इसके राजनीतिक अकांक्ष: की तृप्ति होनी चाहिए, राजा बनाने की अकांक्ष: की पूर्ति के लिए सभी को वोट देने का अधिकार दे दिया गया, लोगों से कहाँ गया कि तुम्हें चिंता करने कि क्या अवश्यकता है ? तुम्हारे पास वोट देने का अधिकार है, राज्य तुम्हारा है, राजा बनकर बैठे रहो, पर पेट कैसे भरेगा ? इसका कोई विचार नहीं किया गया,
समाजवादियों ने कहा रोटी सबसे बड़ी चीज है, रोटी के लिए लड़ो, पर उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि रोटी के संघर्ष में जोलोग मार जायेंगे उन्हें क्या मिलेगा ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म के स्थापना के लिए युद्ध की बात कही है, उन्होंने कहा है कि धर्मयुद्ध में जो वीरगति को प्राप्त करेगा, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी, समाजवादी धर्म के अस्तित्व को ही नहीं मानते, उन्होंने धर्म को अफिम का गोली कहा है, ऐसे में मोक्षकी प्राप्ति पर विश्वास करने का सवाल ही नहीं बनता,
रोटी के संघर्ष में जोलोग कार्ल मार्क्स के रास्ते पर चले उनका अनुभव यह हुआ कि राज्य तो हाथ से गया ही और रोटी भी नहीं मिला,
पुंजीवादी अमेरिका वासियों के पास राज्य भी है और रोटी भी, फिर भी शांति नहीं जितनी आत्महत्या अमेरिका में होती है, जितने लोग वहाँ मानसिक रोग के शिकार हो रहे है, उतना दुनिया में और कही नहीं होता है अतः समस्या यह खड़ीं हो गई, रोटी मिल गया, राज्य भी मिलगया किन्तु शांति कहाँ ? नींद हराम है लोगों का मांग है नींद लाओ ! शांति लाओ ! इस भयानक स्थित को देख कर पश्चिम के विचारकों को अनुभव हुआ है, कि उनकी जीवन पद्धति में कहीं न कहीं कोई मौलिक गलती अवश्य है जिससे समृद्धि के बाद भी सुख और शांति नहीं है, कारण यह है कि उन्होंने मानव का पूर्ण विचार नहीं किया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने कहाँ है कि मानव की प्रगति का मतलब शरीर, मन, वुद्धि और आत्मा इन चारों का प्रगति है,
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी 19 वर्ष की युवा अवस्था तक मृत्यु दर्शन के गहन साक्षात्कार कर भय विजयी हो गये थे, एक समय उनपर बहुत दबाव था, पर वे उस प्रवाह और दबाव के आगे अडिग खड़े रहे, उन का कहना था कि जो स्वयं अडिग खड़ा हो सकता है, वही उस प्रवाह की दिशा बदलने का उत्क्रम कर सकता है, जो स्वयं अडिग खड़ा नहीं हो सकता वह प्रवाह को बदल भी नहीं सकता, जब वे जनसंघ के महामन्त्री थे उनके मस्तिष्क में एक उद्देश्य स्पष्ट था कि उन्हें काग्रेस का विकल्प नहीं बनना है, बल्कि उन्हें देश में राष्ट्रवादी राजनीति की विकल्पिक धारा को प्रवाहित करना है, और वे इसी दिशा का अवलम्बन किया, वह जिस धारा में भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे, वह धारा हिन्दुत्व की है,
उन्होंने ने कहा था कि " धर्म में हमारा विश्वास केवल उसकी साधनता के कारण नहीं अपितु स्वयंभू है, राज्य का अधार भी हमने धर्म को ही माना है, अकेले दण्डनीति राज्य को चला नहीं सकती " संसाधन उपलब्ध होने के उपरांत कब कहाँ कितना कैसे उसका उपयोग होगा यह तो धर्म ही निश्चित करेगा, मनुष्य की मनमानी को रोकने, उसके स्वेच्छा चरण पर प्रतिबंध लगाने तथा प्रेम के पीछे श्रेय को न भूलने देने में धर्म सहायक होता है,
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी समावेशित विचार धारा के समर्थक थे, वे एक मजबूत और सशक्त भारत चाहते थे उनकी असामयिक मृत्यु के कारण समाजिक व आर्थिक जगत अनेकों समस्याओं के समाधान के सरल और सफल मर्गर्दर्शन से वंचित रह गया,
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कहीं खोए नहीं है, खो भी नहीं सकते, विचार और विचारकों की कभी मृत्यु नहीं होती, वे आज भी विचारों में अमर है, लाखों लाख कार्यकर्ता प्रति क्षण उनके विचारों को आगे बढाने रहे हैं, जबतक पृथ्वी पर मानव सभ्यता रहेगी पंडित जी अजेय अमर रहेगें उनके विचार के केन्द्र में मानव है, मनुष्य के लिए बना विचार मनुष्य के रहते कभी समाप्त नहीं हो सकता !!
,
Comments
Post a Comment