चरण पादुका " खड़ाऊं "

संस्कृतशब्द पादुका पद से व्युत्पन्न है । जिसका अर्थ 'पैर' है। यह साहित्यिक शब्द भारत की प्राचीन " चरण पादुका " को परिभाषित करने के लिए गढ़ी गई थी। 


भारत में चरण पादुका या खड़ाऊ पहनने का प्रमाण सत्ययुग, द्वापर और त्रेता तीनों युगों मिलता है। श्री राम कथा " रामायण " में खड़ाऊं के धार्मिक महत्व को विस्तार से प्रकाशित किया गया है। खड़ाऊं का धार्मिक महत्व जितना अधिक है। उसका वैज्ञानिक महत्व भी कम नहीं है।



आधुनिक शोध से यह प्रमाणित हो गया है कि खड़ाऊ पहनने से सूगर, प्रेशर जैसे असाध्य रोगों के निवारण में सहायक होता है। इसका प्रमाण वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है।

वैदिक काल में संत महात्मा ही नहीं समान्य जनमानस भी खड़ाऊ पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे संतों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। 

गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि -मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था। यजुर्वेद में कई जगह लकड़ी की पादुकाओं का भी उल्लेख मिलता है।

शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए साधु-संतों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की।शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके इसलिए खड़ाऊं पहनी जाती थी। यह प्रक्रिया अगर निरंतर चलती रहे तो शरीर की जैविक शक्ति        ( वाइटल्टी फोर्स ) समाप्त हो जाती है।

खडाऊ  पहनने से सबसे बड़ा लाभ है कि यह शरीर में रक्त संचार को सुचारू रूप से चलाता है । तथा मानसिक और शारीरिक थकान दूर होती है। यह पैरों की तलवे का मांसपेशियों को मजबूत बनाता है।

खड़ाऊ पहनने से शरीर का संतुलन सही रहता है जिसकी वजह से रीढ़ की हड्डी पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। और  वह सीधी रहती और मजबूत बनती है । स्लीप डिस्क के होने के संभावना बहुत कम रहती है।खड़ाऊ आपके पोस्चर को भी संतुलित रखता है।

 

सकारात्मक ऊर्जा विकसित कर जीवनी शक्ति बढ़ाने के लिए ऋषि-मुनियो ने खड़ाऊं पहनने का परम्परा का शुभारंभ किया था जो फैशन के होड़ में विलुप्त हो रहा है

वंदेमातरम्



  


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